Skip to main content

राजद्रोही नारे .......?



   जटिल परिस्थितियों में हम अक्सर अपना संतुलन खो देते हैं| हमारे सामने जो भी स्थिति हो, हम उसे बिना सोचे-समझे पूर्वाग्रह से देखने लगते हैं| या यूँ कहूँ कि बौद्धिकता का त्याग कर किसी निर्णय पर पहुँच जाते हैं| जब बात भारत की हो, उसमें भी मुस्लिम की हो या पकिस्तान की हो, तब तो कोई और सोच आती ही नहीं|
   मध्यप्रदेश और राजस्थान में पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाए जाने के जुर्म में कुछ लोगों को हिरासत में लिया गया| बाद में मध्यप्रदेश के 15 आरोपियों को छोड़ दिया गया|
   अपने देश की हार का जश्न मनाना दुखद या अनुचित है या हो सकता है, पर अपराध बिल्कुल नहीं और राजद्रोह तो किसी कीमत पर नहीं| जब ओवल, इंग्लैंड में भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक वहां पर भारत की जीत का जश्न मनाते हैं, तो क्या वे हमारे लिए या ब्रिटेन के लिए राजद्रोही होते हैं? नहीं! हमारे लिए वे देशप्रेमी और राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत नागरिक होते हैं| उनका संवैधानिक राष्ट्र उन्हें इस बात के लिए दण्डित नहीं करता और न ही तार्किक रूप से ऐसा कोई भी लोकतान्त्रिक-संवैधानिक राष्ट्र कर सकता है |
   अब हम अपनी बात करते हैं| हमारे मन-मस्तिष्क में ऐसा कोई विचार कि वे राजद्रोही हैं, नहीं आता तो क्या हम ऐसे कृत्यों की आलोचना करने की नैतिकता रखते हैं? उचित बात तो यह होती कि हम ऐसे नारों पर कोई ध्यान ही ना देते क्योंकि उनका उद्देश्य केवल ध्यान आकर्षित करना होता है और उसमें हमारी पुलिस उनकी मदद ही कर देती है | जबकि हम अच्छे से जानते हैं कि उनकी इस गलती की सजा उन्हें नहीं दी जा सकती |
राजद्रोह
   अब राजद्रोह की बात करते हैं| सर्वोच्च न्यायलय ने यह कई बार स्पष्ट किया है की राजद्रोह तभी हो सकता जब हिंसक उत्तेजना और भौतिक संरचना के ह्रास की स्थिति हो जो किसी के नारे लगाने से,पटाखे फोड़ने से  कभी प्रमाणित नहीं किया जा सकता हैं| मुद्दे की बात ये है कि जब कोई पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाता है, तो बस हमारा माथा ठनक जाता है और बिना समझे भावना के अतिरेक में आ जाते हैं और आम जनता को भी आने देते हैं |भले ही सत्य से हम कितना ही दूर क्यूँ ना हो| खैर बात यह है की  1962 में केदारनाथ सिंह निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह की स्थिति को स्पष्ट किया है |  उसके बाद 1995 में बलवंत सिंह का मुद्दा, जो 'खालिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाने का था, में भी यह बात स्पष्ट हुई और उसे राजद्रोह नहीं माना गया| पुनः सितम्बर 2016 में सर्वोच्च न्यायलय ने इसे परिभाषित भी किया|
   अब सवाल यह उठता है कि इन सब के बावजूद हमारी पुलिस या चुनी हुई सरकार ऐसा क्यों करती है? यह बहुत दुखद है कि हमारे किसी भी राजनेता में इसे अनुचित कहने की हिम्मत नहीं |

   लन्दन के एक भाषण में पिछले वर्ष अरुण जेटली जी ने कहा था "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी तरह आपको राष्ट्र की संप्रभुता पर हमला करने की अनुमति नहीं देता|" संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत हमें मौखिक रूप से तीखी आलोचना या अभिव्यक्ति करने की आज़ादी है| हाँ! अगर वह भौतिक हिंसा या कहें शारीरिक हमला करते हैं तो वह गलत होगा, जिसके लिए अनुच्छेद 19(2) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्ति युक्त बंधन लगाता है| यहाँ समझने वाली बात यह है की यह सब केवल प्रावधान मात्र हैं, कोई कानून नहीं| अतः राजद्रोह कानून को पढने से लगता हैं कि इसकी पेचीदगियों को समझा जाना आज के समय में शासन और जनता दोनों के लिए जरुरी हैं| 

Comments

Popular posts from this blog

जवान - लोकतान्त्रिक अपील का बड़ा परदा

कला किसी भी दौर में अभिव्यक्ति के माध्यम खोज लेती है। भारतीय सिनेमा का भारतीय नागरिकों पर अत्यधिक प्रभाव है। ख़ासकर हिंदी सिनेमा का ऐसे दौर में जहाँ सत्ता ने तमाम तरह के दायरों में मीडिया को जकड़ा हुआ है, जहाँ लाभ और हानि का गणित व्यापक स्तर पर मनोभावों के ठेस लगने पर निर्भर कर दिया गया है। उस समय में यह फिल्म सत्ता से सवाल भी करती है। आपका मनोरंजन भी करती है।  पूरे देश में आम नागरिक की शिक्षा और स्वास्थ्य की जरूरतों को बड़े बड़े निगमों की चकाचौंध से भरी विज्ञापन की दुनिया में बिसरा दिया जाता है। हमारे आस पास से सरकार की भूमिका को धीरे धीरे मिटाया जा रहा है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में व्यवस्था के रिस्पांस सभी के प्रति बराबर होना चाहिए, पर अफ़सोस ऐसा है नहीं।  इतिहास के खोल में घुस चुका पूरा तंत्र वर्तमान को केवल खोखले गर्वोक्ति और अधूरी जानकारी से भरता है फिल्मों में बड़े बड़े सितारों ने भी उस जगाने की क्रिया से मुहं फेरा हुआ है।  एक लम्बे अन्तराल के बाद किसी बड़े सिनेमा के बड़े परदे से आपको आपके मतदान के महत्व और आपकी जिम्मेदारी के प्रति चेतना देने का प्रयास दिखेगा अब इसके लिए आपको एक बार यह फ

"धन्यवाद" प्रधानमंत्री कहना भ्रष्टाचार और बेईमानी है अपने ही देश से!

धन्यवाद प्रधानमंत्री,  सेवा में,  एक अदना भारतीय कर दाता नागरिक!   मैंने कल  एक माननीय सांसद का ट्वीट देखा जिसमें उन्होंने पेयजल की पूर्ती, निशुल्क: अनाज वितरण और कोविड टीके जैसे कामों के लिए कुछ जिला स्तरीय आंकड़ों के साथ उत्तर प्रदेश के किसी क्षेत्र विशेष के संदर्भ में   प्रधानमंत्री का धन्यवाद ज्ञापन उल्लेखित था ।   पिछले कुछ समय से मुख्य धारा की विवेकहीन पत्रकारिता और सत्ता की मलाई में से हिस्सा लेने वाले बुद्धिजीवियों ने एक ऐसा नैरेटिव सेट किया है जिसमें हर काम के लिए प्रधानमंत्री का धन्यवाद दिया जाना एक अघोषित नियम जैसा हो गया है ।   यह रिवाज भारतीय लोकतंत्र और प्रशासन दोनों की बेईज्ज़ती का आधार और आरम्भ है ।  भारत एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र है जिसका लोकतंत्र संस्थाओं पर आश्रित है ।  इन सस्थाओं में व्यक्ति और संसाधन लगे हुए हैं जो हमारे राष्ट्रीय प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ अंश हैं ।   इन संसधानों और व्यक्तियों का अनुक्रम सरपंच से लेकर राष्ट्रपति तक है । चुने हुए प्रतिनिधियों का हक़ तो है ही साथ ही कई अप्रत्यक्ष सत्ता संस्थान मसलन सामुदायिक प्रयास, व्यक्तिगत भलमनसाहत, अधिकारी स्तरीय तत्परता

"हे राम" से "श्री राम" तक....... सिया -राम !

  जब भी देश में वास्तविक समस्याएं हुई हैं राष्ट्र एकत्रित होकर पलायन करने में सफ़ल रहा है ! वर्तमान में भारत का आम जन जीवन अपने आर्थिक और भौतिक सीढ़ियों के अंतिम या सीढ़ीनुमा उपादानों के नीचे खाई खोद के उसमें फंसा हुआ है। 1990 के पूरे दशक में राम मंदिर ने तमाम सामाजिक और राजनैतिक विमर्शों को एक अलग लबादा पहनाया। हम आर्थिक समस्या और सामाजिक रचना करने की ओर अग्रसर होने ही वाले थे मंडल आयोग की सिफ़ारिश के बाद न केवल पिछड़े वर्ग को अपितु तथाकथित सामान्य वर्ग को भी 10% आरक्षण का प्रावधान नरसिम्हा राव की सरकार लेकर आई थी।  भारतीय राजनैतिक दलों का वोट बैंक बंट रहा था ऐसे में राम आये और हमें एक किया हमने तमाम आपसी भौतिक जरूरतों को राम के आगे न्यौछावर कर दिया।  उस समय जब न्यायलय में समान्य वर्ग के आरक्षण का मुद्दा गया था तो उसे 50% से अधिक आरक्षण नहीं हो सकता इस तर्ज़ पर नकार दिया गया था , ये एक जांच का विषय हो सकता है कि किन कानूनी नियमों के आधार पर तब और अब के सामान्य वर्ग के आरक्षण में आर्थिक स्तर की बंसी लगाने के आलावा क्या अंतर किया गया है !?  मुझे याद है जब भी कृष्ण जन्माष्ठमी होती है तो रात के