“भारत और उसके विरोधाभास” यह पुस्तक 2014 से पहले के आंकड़ों के माध्यम से भारतीय शासन व्यवस्था की स्थायी खामियों की विवेचना है, क्योंकि यह एक दृष्टि है । 2014 से अब तक आंकड़ों में थोड़े बदलाव आये हैं पर जिस दृष्टि की अपेक्षा आज है उसे ये पुस्तक तब तक प्रासंगिक बनाये रखेगी जब तक हम उस तरह से देखना शुरू न कर दें । भारत के विकास में लगातार जिन बहसों और मुद्दों को राजनीति से लेकर मीडिया तक के गलियारे में दोहराया जाता है। किस प्रकार से वह तमाम मुद्दे एक बेईमान और अर्थलिप्सा में डूबे हुए वर्ग की प्रतिध्वनि है इसका उत्तर यह पुस्तक देती है। भारत के अभावग्रस्त नागरिकों के हक़ और कम अभावग्रस्त जनता का अपने लिए सरकारी फायदों को मोड़ा जाना ही भारतीय शासन का स्थायी चरित्र हो गया है, इसके तमाम उदाहरण यह पुस्तक हमारे सामने रखती है। वंचितों के किस मांग और किस समस्या को भारतीय मध्यमवर्गीय अधिकार क्षेत्र ने अपना माना है और क्यों माना है इसके पीछे के सभी पहलुओं पर यह पुस्तक एक सटीक टिप्पणी है। पेट्रोलियम अनुदान, खाद अनुदान, आभूषण निर्माण पर अनुदान, बिजली पर अनुदान यह सब किस प्रकार से न्यायसंग
आओ चाँद के किरदार को अपनाते हैं, दूसरों की रोशनी में अपने दाग दिखाते हैं|