अभी हम सब घर पर बैठे-बैठे तरह-तरह के भावों से भरे हुए हैं। भय, क्रोध, चिंता
अनिश्चित्ता के माहौल में हम सरकार के सहयोग और सरकार के खिलाफ़ होने के तौर पर फिर
बंट रहे हैं।
कुछ लोग मोदी के फैसले लेने के समय और योजना का गुणगान कर रहे हैं कुछ मीन मेख
निकाल कर योजना और समय की आलोचना कर रहे हैं। एक बात जिस पर हम सब सहमत हैं वो ये कि
हम सब सामान्य स्थिति में नहीं हैं और इस आसामन्य स्थिति में हमें एक दूसरे के
सहयोग की जरुरत है।
मजदूर वर्ग की त्रासदी के प्रति सरकार को तालाबंदी करने से पहले एक बार सोचना
चाहिए था?
हमारा आर्थिक स्वभाव जब असंगठित क्षेत्र पर ही आधारित है, जब आपके पास इसकी
पूरी सूचना है की हमारे अर्थतंत्र में दैनिक तौर से कमाई कर खाने वाले लोगों की
हिस्सेदारी ज्यादा है!! जब आपको पता है कि आपने ही वादा किया है कि २०२२ तक आप
सबको घर देंगे? तो ऐसे में तालाबंदी लगाने के प्रयोजन के पीछे के मनोविज्ञान पर
सवाल बनता है! और ये सवाल यकीन मानिये देश हित के खिलाफ नहीं है!
गलती कहाँ हो रही है?
एक राष्ट्र के तौर पर हम परिसंघीय व्यवस्था में काम करते हैं, जैसे हमारा
मीडिया मोडिया हो गया है वैसे ही लोग भी मोडिया होते जा रहे हैं और इसमें
प्रधानमंत्री को केंद्र बना कर किये जाने वाले निर्णय आलोचना,चर्चा का बहुत बड़ा
योगदान है।
कोरोना वायरस के प्रति जानकारी चर्चा और निर्णय में हम सभी को रचनात्मक रवैया इख़्तियार
करके सबसे पहले ये समझना होगा कि हम अपने अपने आस पास जो समस्यायें देख रहें हैं उन्हें सुलझाएं अपने
स्थानीय आधार पर समस्या को समझें! गाँव का रहन सहन शहर से अलग होता है, 10000
कमाने वाले और 100000 कमाने वाले एक ही तरह से समान समय तक नहीं रह सकते हैं!
बिहार में इन्सेफ्लाइट्स फ़ैल रह है? क्यों उसके सवाल पूछना गलत है लोगों को तकलीफ
उससे नहीं हो रही ? वो स्वास्थ्य समस्या नहीं है ? उसके लिए सरकार ने क्या तैयारी
की हुई है ?
केरल सरकार इस समस्या से कैसे निपट रही है ? इसकी तुलना क्यों नहीं की जानी
चाहिए? दक्षिण कोरिया ने दुनिया के सामने कैसे मिसाल पेश की है इसका जिक्र मोडिया
क्यों नहीं कर सकता ?
मंदिर सहयता के लिए आगे आये, गुरूद्वारे ने लोगों की मुश्किलें कम की हैं! पर
क्या इसका मतलब यह है कि हमें धर्म और ईश्वर की आस्था का आसरा इससे निकाल पायेगा?
नहीं हमें इन संस्थाओं के मनोवैज्ञानिक महत्व को समझते हुए स्वास्थ्य सुविधाओं के
भौतिक जाल को तवज्जो देनी ही होगी।
वेटिकन सिटी से लेकर काबा तक में केवल मनुष्य की मनोवैज्ञानिक जरूरतों को पूरा
करने की क्षमता हैं! इस समय ने हमें यही सिखाया है कि जितना जल्दी हो सके उतनी
जल्दी से मध्यकालीन सामूहिक बोध की श्रृंखला को कोरोना की श्रृंखला के साथ तोड़ें
और दुनिया को हथियार, धर्म की होड़ से निकाल कर ज्ञान और विज्ञान की होड़ में ले के
आयें जहाँ प्रकृति का पूरा स्थान हो।
हम सबको एक दूसरे का सहयोग करना चाहिए और लोग कर भी रहे हैं। इसका मतलब ये
बिल्कुल नहीं है कि सवाल पूछना बंद कर दें।
सारी व्यवस्थाएं यदि ठीक हो तो सरकार डर के तालाबंदी नहीं करती! हम भी यह मान कर
इस बात से सहमत नहीं होते सच ये है कि अज्ञान और अव्यवस्था हमारी नियति बन चुकी है।
इटली का बुरा हाल है उम्रदराज लोग और गैरजिम्मेदार नागरिकों के कारण! कोरोना से
लोग 80% मामलों में खुद ठीक हो रहे हैं, हमारी लड़ाई का स्वर जब तक शिक्षा और
स्वास्थ्य पर नहीं आएगा तब तक यों ही समाज का एक तबका बिलबिलाता रहेगा मनुष्य होने
का दर्जा पा लेने के लिए!
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