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आत्महत्या की हत्या

संयुक्त राष्ट्र संघ की 2019 में एक रिपोर्ट आई थी अक्टूबर के महीने में उसके बाद कोविड -19 के चलते कोई नई रिपोर्ट नहीं आई है।
दुनिया में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर शीर्ष की 10 जर्नल में से एक जर्नल है एनुअल रिव्यु उसके 2020 के 71वें संस्करण में "डिप्रेशन'स् अनहोली ट्रिनिटी : डिसरेगुलेटेड स्ट्रेस, इम्युनिटी, एंड द माइक्रोबयोम' नामक लेख है - दोनों का संदर्भ इसलिए दिया क्योंकि यहाँ सब ज्ञानी हैं और सबका ज्ञान गांगा की तरह अविरल बह रहा है और इस अविरल धारा में बांध बनाने के लिये ठोस आधार तो चाहिए ही।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार हर साल करीब आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिसमें से 79% हमारे जैसे 'मध्यम आय वर्गीय' देशों में होती है।
विश्व में मृत्यु के कारणों के अनुसार ये दुनिया का 19वां सबसे बड़ा कारण है और साथ ही 15 से 29 साल के मध्य के इंसानों के मरने का दूसरा सबसे बड़ा कारण है।
एक और चौंकाने वाला तथ्य ये है कि हर 40 सेकेंड में दुनिया में कहीं न कहीं कोई आत्महत्या हो जाती है! विश्व स्वास्थ्य संगठन के सतत पोषणीय विकास लक्ष्य में इसके प्रति कारगर रवैया अपनाने को लेकर कई तरह के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं।
इन तथ्यों के बाद आते हैं लेख पर- डिप्रेशन'स् अनहोली ट्रिनिटी : डिसरेगुलेटेड स्ट्रेस, इम्युनिटी, एंड द माइक्रोबयोम' इसके अनुसार डिप्रेशन यानिकी तनाव एक ऐसा मनोवैज्ञानिक उपक्रम है जिसमें बहुत सारे रोगियों को बहुत देर में पता चलता है कि कोई गड़बड़ी है, ये हमारे आरंभिक जीवन से ही शुरु हो जाता है और कई बार ये वंशानुगत भी होता है। मतलब कि ये एक सामूहिक तौर से सामाजिक तौर से स्वभाविक अवस्था है जिसके प्रति सजग होकर हम अपने मस्तिष्क का ख्याल रख सकते हैं ठीक वैसे ही अन्य बिमारियों की तरह जो हमारे शरीर को प्रभावित करती हैं और हम अपना ख्याल रखते हैं। तनाव से हमारे रोग प्रतिरोधक क्षमता पर और निर्णय लेने की योग्यता पर बहुत ही असंतुलित प्रभाव पड़ता है।
अब ये तो थी सामान्य जानकारी भूमिका के लिए वास्तव में जो बातें हैं जिनपर विचार करना है वो ये कि हम मानसिक रोगों के प्रति कितने सजग हैं??? इस सवाल का जवाब उस तथ्य से पता करते हैं जिनमें मध्यमवर्गीय देशों से 79% मामलें आते हैं क्यों?? क्योंकि इन देशों में मानसिक रोग को पागलपन, दौरा और ऊपरी चक्कर कह कर एक अलग तरह का दौर चलता है।
खान पान, गाली गलौज, भाषा व्यवहार, कार्य क्षेत्र में वरिष्ठ और कनिष्ठ साथियों का आपसी व्यवहार, लीडर शिप (नेतृत्व) की आधारभूत जानकारी तो बहुत दूर की बात है , यदि कोई सामाजिक दायरों के बाहर के सवाल भी कर ले तो उसे तरह तरह के उपनाम दे दिये जाते हैं।
नतीजा एक दमित खोखली, जगमगाती दुनिया, जो नकारात्मक जीवन घटनाओं के प्रभाव से निकालने के बजाय एक नये किस्म के दबाव को जन्म देती है कि मुझे कोई समझेगा या नहीं!!!? हालांकि नये शोधों के हिसाब से सूक्ष्म जीवों, वयस्क तंत्रिका तंत्र और मनोवैज्ञानिक उपचारों के संयोजन से इसका उपचार बेहतरीन दौर में है, पर इस बात की सामान्यता को स्वीकार करने की समझ हमारे समाज में बिल्कुल नहीं है कि मनोरोगी होना कोई अपराध नही है हम सभी जीवन के किसी न किसी दौर में तनाव चिंता निराशा से गुजरेंगे ही क्योंकि ये हमारे डीएनए में है। हम सामाजिक नहीं मनोवैज्ञानिक सामाजिक प्राणी हैं।
अब आते हैं दूसरी बात पर अध्यात्म ईश्वर और जीवन मृत्यु - जैसे ही इस तरह की घटना कहीं भी होती है तो ये सवाल झट से दाग दिया जाता है कि अध्यात्म के प्रति जिसका जैसा दृष्टिकोण होता है उसके अनुसार उसके निराशाजनक या आशा वादी होने की संभावना प्रभावित हो सकती है कि- इस धारणा को परखते हैं दूसरे तथ्य से जो हमारे आदिम मन:स्थिति - 'किसी के साथ होने का अहसास' से जुडा़ है। असुरक्षा और जीवन के प्रति अनिश्चितता का जब दौर चलता है तब ईश्वर में झोंकी जा रही अखंड आस्था भी टूट जाती है।
आपको क्या लग रहा है अमेरिका में श्याम और श्वेत का विद्रोह केवल अस्मिता बोध का विद्रोह है? जी नहीं वो संघर्ष गहराई में बेचैन और असुरक्षित समुदाय का विक्षोभ है जिस पर संत्रास की गाज सबसे पहले गिरी। गरीबी और बेरोजगारी का सबसे पहला शिकार जमींदार के जमीन पर काम करने वाला मजदूर बनता है और उसी तरह से रैखिक अर्थ तंत्र में सबसे निचले पायेदान पर खड़े वर्ग को ट्रिकल डाउन थ्योरी का विपरीत क्रम झेलना होता है।
इस तरह से असुरक्षित होने का भाव किसी में भी कभी भी आ सकता है यदि हम विश्वास की बागडोर बना के रखें तो इस तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याओं को संभाल तो सकते हैं पर पूरी तरह हल नहीं कर सकते। पूरी तरह हल करने के लिये चेतना की जरुरत होगी जिसके लिए वैज्ञानिक रवैया इख़्तियार करना होगा। यकीन मानिए जबतक अपराध बोध और पुण्य पाप की अवधारणा का नैतिक परक विचार और धर्म आधारित भय आधारित आधार का अंतर हम नहीं समझेंगे तब तक ये संभव नहीं है। इसीलिए अध्यात्म और धर्म का अलगाव न समझने वाली जनता को पहले सहज करिये मनोवैज्ञानिक चर्चा को मनोवैज्ञानिक चर्चा की तरह चर्चित करने के लिए न की ईश्वर आधारित न्याय व्यवस्था के लिए।
वास्तव में आत्महत्या कभी भी आत्महत्या होती ही नहीं है वो एक सामाजिक हत्या होती है चाहे वो किसान की हो, राजनेता की हो, व्यापारी की हो विद्यार्थी की हो हमारे पडोसी की... कैसे? वो ऐसे कि हम असहिष्णुता के उस दौर में जी रहे हैं जहाँ हमनें संतुष्ट होने के आभासी आयाम को ही सत्य मान लिया है। अंह और दँभ में हर ऊपर वाला अपने नीचे वाले को इंसान समझ कर नहीं संसाधन समझ कर रवैया तय कर रहा है। कोई कुछ साझा करने से पहले ही समस्या में आ जाता है समझेंगे या नहीं? समाज के उन खोखले आयामों में घुसकर सवाल जवाब करिये खुद से घर वालों से आस-पड़ोस से कि किन सामाजिक उसूलों को लेकर उन्हें दबाव महसूस होता है? किस अवस्था को वो उघाडने से डरते हैं??? मां को पापा क्यों डांटते हैं??? पापा के बॉस इतने खडहूस क्यों हैं? बहन गुमसुम क्यों हो गई है? भाई चिडचिडा क्यों हो गया है? बगल वाली आंटी, ऊपर वाले भैया? गांव का दोस्त? गल्ली का चौकीदार? मकान मालिक? किरायेदार? कंपनी के साथी? बस में साथ चढ़ने वाला हमसफ़र? रास्ते पर गोलगप्पे वाला? रेस्टोरेंट का सर्विस मैन? स्विगी का डिलवरी बॉय? ओला का ड्राइवर? दहेज की चिंता वाला पिता? जाति की हिंसा वाला प्रेमी? राजनीति का विरोधी? सब सब तनाव ग्रस्त हैं बस उस बिंदु तक पहुँचाने में हम सब भागीदारी कर रहे हैं बस उसी भागीदारी को रोकिये। मुस्कुरा कर बस ये सोच लिजीए कि आपके दो मिनट अपने अंह को त्याग कर मुस्कुरा के बात करने से बहुत कुछ समझा जा सकता है। समझाया जा सकता है। मन का ख्याल भी वैसे ही रखना होता है जैसे तन का... कुछ अलग नहीं है अच्छा महसूस नहीं कर रहे तो मनोरोगी के पास जाइये मिलिये ठीक वैसे ही बिना झिझक के जैसे बुखार होने पर पैरासिटामोल मांगने में नहीं झिझकते हैं। क्योंकि मनुष्य एक मनोवैज्ञानिक समाजिक प्राणी है। सबसे खास बात ये कि जीवन न तो आपसे पहले रुका था न आपके बाद रुकेगा इसलिए समाज के किसी धारणा का दबाव मत लीजिए अपना जीवन जीने के लिए जो करना पडे कीजिये!!! बस जी लीजिए इसे क्योंकि सब खाली भाषण है जीवन को भोग लेना ही प्रकृति का चयन है।

Comments

  1. बहुत खूब। दिक्कत यही है कि जीवन की जो आपाधापी हमने चुनी है, वहां कोई हमसे सहज मनोरम भाव से पूछता भी है तो हमने खुद को इतना खुद में सीमित कर लिया है कि कोई पूछना भी चाहे तो हम पूछने नहीं देते। नतीजा सामने है। थोड़ा हम किसी के बारे में पूछे और कोई हमसे पूछे तो बता सकें। निराशा और नीरसता के दौर में दूसरे में नहीं खुद को खुद में तलाशने की एक कोशिश तो हो। पता तो रहे कि हमें जाना कहां है और उसको जीने की कोशिश भी हो। बाहर की चकाचौंध रहे या ना रहे पर अंदर का अंधकार नहीं रहना चाहिए। उसे तो दूर करना ही होना चाहिए।

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  2. Kya baat hai... Bohot badhiyaaaa..

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