“मै हिन्दू क्यों हूँ”
इस पुस्तक का आरम्भ किताब लिखने के कारण से होता है, लेखक ने इस पुस्तक के
सम्पूर्ण विषय वस्तु का मंतव्य यहीं स्थापित कर दिया है, जिसका मोटा मोटी रूप है
कि हिन्दू धर्म एक विशाल बरगद है। एक ऐसा बरगद
जिसकी शाखाएँ फल फूल रही हैं, इस वृद्धि में कोई बाहरी दबाव या आशंका नहीं है
अपितु यह इसके अनुयायियों के विभिन्न चेतना और विश्वास से अपने आप चिर नवीन चिर
पुरातन बन के स्थापित है और इस स्थापना में जड़ता नहीं है एक गति है सूर्योदय और
सूर्यास्त के गति सी गति जो नित कई शंकाओं सा अस्त और समाधान सा उदित होता है।
“मेरा हिन्दू वाद” मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ इसलिए मेरा धर्म
हिन्दू और यहीं से उस धार्मिक हिंसा के खिलाफ तर्क बन जाता है, जो हिन्दू धर्म को अन्य
धर्मों से अलगाता है यहाँ अगर वेदों के आधार पर कहूँ तो जन्म से सब शूद्र हैं और
वो संस्कार से उन्नत होते हैं, उसी तरह से जन्म से हिन्दू का
भाव यही है कि कोई
बाहरी आवरण या संस्कार इस धर्म में होने या बाहर जाने के प्रमाण नहीं है।
आगे यह पुस्तक बताती है कि
कैसे हिंदुत्व एक ऐसा तत्व है जो सभी मार्गों की सत्यता को स्वीकार करता है और इसी
कारण सदैव सर्वधर्म समभाव की स्थिति में जीता है। यहाँ लेखक ने हिंदुत्व और
हिन्दुवाद के परिपेक्ष्य को आलगाया है।
अध्यात्मिक चिंतन की
श्रृंखला में हिंदुत्व के महान विभूतियों को याद करते हुए लेखक ने ऋग्वेद से
विवेकानंद महात्मा गाँधी और तमाम सनातन धर्म के पक्षों की संक्षिप्त चर्चा की है
और कैसे नास्तिकता से लेकर घोर आस्तिकता हिन्दू धर्म में समायोजित है इसके माध्यम
से इस तथ्य को समझाया है कि कैसे अनेक पंथ अनेक मान्यताएं हिन्दू अनुयायियों के
आपसी मतभेद भिन्न उपासना पद्धति और तमाम अंतरों के साथ एक बहुलतावादी धर्म ही
हिन्दू धर्म है।
यह पुस्तक धार्मिक
आध्यात्मिकता चिंतन के साथ वर्तमान के राजनीतिक हिंदुत्व की चर्चा करती है और
गोलवलकर, सावरकर तथा उपाध्याय जी की मान्यताओं का विश्लेषण करते हुए आपके समक्ष
हिन्दू वाद की चयनधर्मिता का अभ्यास करती है।
विश्व के तमाम धर्मों से
अलग किस प्रकार हिन्दू धर्म अपने मूल में समायोजनवादी रहा है, कैसे भारत के पग-पग
पर इसकी झलक हमें दरगाह में हिन्दू के जाने और हमारी दंतकथाओं में मुस्लिम
चरित्रों के प्रवेश करने तक पसरी हुई है। भारत के संवैधानिक राष्ट्र होने और इसे
एक एकल सांस्कृतिक में बदलने का प्रयास कैसे खोखला और हिंसक प्रयास है, इसका विवेकशील
उत्तर यह पुस्तक देती है।
पुस्तक के अंत में ‘बृहदारण्यक
उपनिषद’ की पंक्तियाँ
“असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर मा अमृत गमय”
उद्धृत हैं जिसका अर्थ है-
मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो
मुझे अंधकार से प्रकाश की
ओर ले चलो
मुझे मृत्यु से अमरत्व की
ओर ले चलो।
ये पंक्तियाँ भले ही
पुस्तक के अंत की पंक्ति हो पर यह हमारे धर्म के आरम्भ का स्वभाव है, हमें लगातार
इसी क्रम में यात्रा करनी है। सत्य के लिए आपने धर्म के मूल स्वरूप के लिए चिन्तन
मनन आवश्यक होता है। आप भी इस पुस्तक को पढ़िए यकीन मानिए युगांक धीर के अनुवाद और
शशि थरूर के चिंतन से आपको सकारात्मक बहस का एक रूप मिलेगा जो सत्य के निकट जाने
में सहायक है।
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