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गाय के दौर में बकरी की कथा

एक आई.टी एकाउंटेंट, एक ड्राईवर और एक रिटेल मैनेजर के बीच क्या समानता हो सकती है? जवाब है बकरी! कर्नाटक के कुंथूर में ज्यों हीं हम 'विस्तारा फ़र्म' में घुसे बकरियों के लींडी की बास ने हमारा स्वागत किया। साथ ही स्वागत के लिए रखे गए मुधाल कुत्तों का अंतर्नाद और कई सौ बकरियों की मैं- मैं ने उस बास का साथ दिया। फार्म के अंदर बकरियों को लिंग और आकार अनुसार वर्गीकृत किया गया था, सभी अपने लकड़ी के स्टैंड पर मस्त खड़े हो हमें देख रहे थे

 बड़े नर बकरे तो लगभग हमारे कन्धों तक आ रहे थे। वे अपने बाड़े में धक्का मुक्की कर रहे थे, उनके मुलायम भूरे कान उनके बड़े चेहरे के आस पास फड़फरा रहे थे। हमारा इंसानी स्वागत करते हुए वहां हमें एक ग्लास बकरी का ताज़ा दूध दिया गया, जो अब भी हल्का गर्म और झाग से भरपूर था जिसमें हल्की सी बकरीया गंध थी। इसका स्वाद गाय के दूध सा नहीं था लेकिन इसमें एक अतिरिक्त धुआंनि स्वाद था, (ये धुआंनि स्वाद वो बेहतर समझेंगे जिन्होंने गाँव में हुए भोज में बनी सब्जी चखी हो जिसमें इंधन के तौर पर जलाई जा रही लकड़ी के धुएं का स्वाद आ जाता है)  कृष्ण कुमार (A.N) ने अपना पूरा फ़र्म अत्यंत गर्व से दिखाया। 

बचपन की बातें  
  कृष्णा ने जब अपनी बकरियों के फ़र्म की जानकारी साझा की तो संदर्भ के बिना इस यात्रा के प्रयास को समझना मुश्किल था। बैंगलोर से कुंथूर तक 160 कि.मी. यात्रा के दौरान शायद ही कृष्णा चुप रहे हों , वह लगातार बकरी के दूध से अन्य उत्पादन तैयार करने के अपने सपने के बारे में अत्यंत उत्साह से हमें सब बता रहे थे  उनकी बातों में उनके दोस्तों जैसा औपचारिक शहरी लहज़ा नहीं अपितु अत्यंत ठेठ देसीपना था, ये करीबी दोस्त इस 'विस्तारा फ़र्म'  में उनके सहयोगी थे 
  कृष्णा ने "विस्तारा" के आगे बढ़ाने के श्रेय लेने पर कहा मैं तो बस एक माध्यम हूँ लेकिन वो केवल माध्यम नहीं हैं। वो ऐसे व्यक्ति या कहें वो कारण हैं जिसके वजह से भिन्न -भिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित 20 व्यक्ति एक साथ एक उद्यम में सम्मिलित हुए| 
  कृष्णा ने उन्हें इकठ्ठा किया और उनकी छोटी - छोटी बचत को खर्च करने का विश्वास उनमें भरा, खुद अपनी मां के गहनों को गिरवी रखा और निजी ऋण लिया | उन्होंने कुंथूर के निकट एक फर्म खरीदा और बकरियों पर अपनी समझ बनाना शुरू किया| अब उनके पास दो फर्म हैं, जिनमें 200 बकरियां हैं और रोज 50 लीटर दूध की पूर्ती करती हैं| 
  आर. चेतन कुमार (31 वर्ष ) ने कहा - 'जब हम बच्चे थे तो गाँव में अक्सर किसी के बीमार होने पर यही सुनते थे "इसे बकरी का दूध पिलाओ" , आर.चेतन कृष्णा के करीबी मित्र हैं और 'विस्तारा' की मार्केटिंग देखते हैं| 
   विद्यालय के अंतिम दिनों में यह चर्चा मन में पीछे मन में छूट गई की बकरियों के दूध से उनके जीवन में क्या होता है, बकरी का दूध स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है साथ ही ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यह आसानी से उपलब्ध नहीं होता| किसी भी शहर में आप बकरी के दूध को आसानी से प्राप्त नहीं कर सकते, कृष्णा और उसके दोस्त इसी तथ्य का लाभ उठाना चाहते थे| 

  हमने निर्णय लिया कि हम साथ में इसका व्यापार करने जायेंगे और एक बकरी के दूध का फर्म शुरू करेंगे| 
   ग्रामीण जानकारी को वेटरनिटी वैज्ञानिक और फ़ूड सोवरनिटी एलाइंस के सदस्य सागरी रामदास ने प्रयोग में लाया| उन्होंने कहा ग्रामीण इलाकों में बकरी के दूध को बकरी के ही बच्चों के लिए बचाया जाता है और हिस्से को चाय या किसी व्यस्क बीमार, बच्चे या क्षय रोग के रोगी के लिए रखा जाता है| यह भी अंदाजा है कि लोग मानते हैं कि हड्डी टूटने पर भी यह दूध लाभकारी होता है| 

यह अलग था    

यह सपना 2013 तक सपना ही था दोस्तों को अपने फर्म के लिए 4 एकड़ जमीन खरीदनी थी जो वो खरीद चुके थे अब बारी थी बकरियां खरीदने की प्रजनकों से बात करने के बाद कृष्णा ने बीवल नस्ल लेने के निष्कर्ष पर पहुंचे उन्होंने 15 बीवल नस्ल की बकरियां बेंगलुरु से तावरकेरे से खरीदी और अन्य पुणे, पंजाब, और मैसूर से खरीदी| यहाँ से बकरी का दूध बाज़ार में लाने का क्रम शुरू हुआ| 
    पर यह पहले कुछ महीनों तक संभव नहीं हो पाया फर्म आरम्भ करने के कुछ ही समय के दौरान 150 बकरियां मर गई शायद पहले उनका खान-पान गलत हुआ और उनके बाड़े की ठंड भी अधिक रही, कुछ मच्छरों के आक्रमण से शहीद हुई| ऐसे समय में न तो ग्रामीणों ने न ही किसी सरकारी संस्था ने सहायता की क्योंकि वो सहायता कर ही नहीं पा रहे थे| रवि कुमार ने इस स्थिति के बारे में बताते हुए कहा - " इस स्थिति में अनुभवहीन किसानों को कुछ नहीं सूझ रहा था इसीलिए उन्होंने अपने तरीकों से चीजों को ठीक करने का प्रयास किया| 
बकरियां हमारी तरह ही होती हैं यदि हम उनके बाड़े में आरामदायक स्थिति में हैं तो वो भी रह सकती हैं  
   उन सबके पास पूरे दिन का काम होता है लेकिन हर दिन की शुरुआत फर्म के दौरे से होती है, पूरे बाड़े को प्लास्टिक से ढक के रखा जाता है| मच्छरों को दूर रखने का इंतजाम होता है, ठंड का ध्यान रखना होता है, उनके खाने में प्रोटीन की मात्रा है या नहीं यह सब देखना होता है| यह सब करने का परिणाम अंतत: वर्ष 2016 के आरम्भ में दिखने लगा| अब वो बकरी के दूध की पूर्ती बाज़ार में करने लगे|  बैंगलोर में 200 मी.ली. के प्लास्टिक बैग में वो इसे बाजार में बेचने लगे| उन्होंने केवल अपने इलाके में दूध बेचकर 50,000 तक की मासिक कमाई शुरू की| 
    कच्चे दूध की बाज़ार में पूर्ती करना उसके खराब होने के जोखिम के साथ होता है जो न केवल लाभ कम करता है अपितु हानि भी पहुंचाता है| 
 एक लम्बी चर्चा के बाद समूह ने तय किया कि वह इसे प्रसंस्कृत कर चीज़ (cheese) के तौर पर बाज़ार में उतारेंगे जिसकी खराब होने की संभावना कम होगी और कीमत भी ऊंची मिलेगी| 
  उन्होंने चीज़ बनाने वाले आदित्य राघवन से सम्पर्क किया जिन्होंने उत्पाद की श्रेष्ठता के लिए कई दिन फर्म में बिताए| 
  चार महीनों की निर्माण जांच प्रक्रिया के बाद अब 'विस्तारा' तीन प्रकार के मुलायम चीज़ तथा पांच स्वादों के योगर्ट का उत्पादन "बस्ता"  ब्रांड से  करती है, बस्ता का अर्थ संस्कृत में 'बकरी' होता है| उनकी फैक्ट्री विजय नगर में एक छोटे से मैदान में है| 

 फर्म 

  हम फर्म में एकदम भोर के समय पहुंचे जहाँ रातभर फ्रिज में रखे दूध को दोबार उबालने की प्रक्रिया से उबाला जा रहा था और एक ही जगह दो अलग- अलग तरह के सॉफ्ट चीज़ को बना कर पैक होने के लिए रखा था| 
     कृष्णा और उनके साथी इस पनीर पर बहुत गर्वित थे क्योंकि बाज़ार में मिलने वाला पनीर का 90% हिस्सा गाय का दूध और 10% बकरी के दूध का होता है| जिसकी कीमत लगभग 320 रु किलो होती है और इनका ये पनीर 100% दूध से बना है| अभी उनकी कुल बिक्री में 60% हिस्सेदारी पनीर की है| 
ये कहानी है एक सपने के पूरा होने की उनकी भविष्य की कई योजनायें हैं, जिन पर उन्हें काम करना है आगे बढ़ना है| 
मूल अंग्रेजी स्त्रोत 
द हिन्दू 
सन्डे मैगजीन 
११ फरवरी २०१८ 

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