आप जब अकेले होते हैं तो आपके साथ यादें होती हैं |वो यादें जो भाषा के स्वरूप में आपमें समाहित हैं | वही रूप बदलकर कविता हो जाती है | कल्पना का पुट , भंगिमा की छूट ,आपका अपना संसार भावनाओं का अम्बार , सब मिलकर आपको अब तक बिताये वसंत , पतझड़ ,सूखा ,बारिश ,ठण्ड सब याद दिलाते हैं | ऐसे में शब्द की साधना आपके अकेलेपन को दूर करती है और प्रकृति में समाहित स्वयं की सारी छवि आपके समक्ष आ जाती है और बन जाती है कविता | भाषा का आविष्कार पूर्ण रूप से मानव का अपना है | उसका निर्माण प्रकृति ने किया पर प्रयोग की अधिकतम सम्भावना को संभव बनाया हम मनुष्यों ने हमारी कविताओं ने उसे नया आयाम दिया | हमारे चिंतन ने उसे नया नाम दिया| ऐसे ही चिंतन के क्षणों में उपजित कविता है' प्रेम' - प्रेम जो हम सबका साझा खजाना है पर इसे हम न समझ पाए है, न समझने का प्रयास करते हैं बस सत्ता के बहकावे में आकर बंटते है बांटते हैं , कटते हैं काटते हैं| पर कवि इसे समझता है या कहें समझना चाहता है | जब सब की यह साझी सम्पति है साझी विरासत है साझी सम्भावना है साझी कल्पना है और साझा सच है तब इसका इतना बंटवारा क्यों ?
हे शक्ति मन्त्र
संबंधों को बांधने का अटूट यंत्र
तुम कैसे जीते हो
आकर्षण हो या हो तृष्णा
किस धागे और सुई से संबंधों को सीते हो |
तुम्हारे पहचान का मिलना
तुम्हारे धारणा का हृदय में खिलना
जीवन में आनंद की धारा
श्रध्दा ,करूणा , और वेदना की परंपरा
किस दर्शन की श्रृंखला हो तुम ?
विज्ञान का कौन सा सिद्धहांत
ईश्वर का वरदान हो हमको
या हमारे जीवन का विराम |
दया और अनुकम्पा का आरम्भ हो
या अदृश्य पवित्रता की गंगा
प्राणियों का मनुष्यत्व हो
या संहार की सृजन कर्ता
संगीत की सुरलहरी हो
या प्रलय की रौद्र सागर
जीवन की आकुलता हो
या जीवन पार की असीम शांति
अश्रु कणों का सागर हो तुम
भावों की उज्जवल नदियाँ
जाति ,धर्म का पर्वत क्यों है ?
यहाँ आये तुम्हे जब हुई सदियाँ |
हीरे सी निष्ठुर हो तुम
कांच को भी काट देती हो
जिस पल में रिश्ता हो जोड़ती
उसी पल रिश्ता एक तोड़ देती हो
मैं,मेरा,मुझे, या हमें हमारा
स्व ,समूह , देश या संसार सारा
सब तुम पर ही आसीन है
फिर भी तू क्यों पराधीन है
उत्सव बना रहा है कोई
तुझे खुद में समाकर
उसे ही जला रहा है कोई
तेरे आवेश में आकर
तुझसे निर्मित तेरे ये रूप
धर्म,जाति , गोत्र ,देश, समाज
हो गये हैं क्यों इतने कुरूप
मानव हृदय में आने का
क्या तेरा यही काम था
इस सुन्दर विश्व को
क्या बनाना श्मशान था ?
संस्कार ,संस्कृति ,का उत्कर्ष जब तू है
विचार ,व्यवहार का निष्कर्ष जब तू है
तो मानव तुझे पाकर भी क्यों तुझे ही खोता है
ये तेरी है समस्या या मानव ही निकृष्ट ,खोटा है
तुझे खुद में समाकर खूब खुश होता है
तेरे लिए ही तुझे खोकर खूब रोता है
तुझे पाकर हम मानव निराकार होते हैं
पर तुझे हमेशा साकार कर ढोते हैं
मूर्त ,मंदिर ,मस्जिद, गिरिजा
सब में तुझको बाँट लिया
आधा आधा सबने समझा
हमने खुद को काट लिया | 15|10|2013
गोपाल
हे शक्ति मन्त्र
संबंधों को बांधने का अटूट यंत्र
तुम कैसे जीते हो
आकर्षण हो या हो तृष्णा
किस धागे और सुई से संबंधों को सीते हो |
तुम्हारे पहचान का मिलना
तुम्हारे धारणा का हृदय में खिलना
जीवन में आनंद की धारा
श्रध्दा ,करूणा , और वेदना की परंपरा
किस दर्शन की श्रृंखला हो तुम ?
विज्ञान का कौन सा सिद्धहांत
ईश्वर का वरदान हो हमको
या हमारे जीवन का विराम |
दया और अनुकम्पा का आरम्भ हो
या अदृश्य पवित्रता की गंगा
प्राणियों का मनुष्यत्व हो
या संहार की सृजन कर्ता
संगीत की सुरलहरी हो
या प्रलय की रौद्र सागर
जीवन की आकुलता हो
या जीवन पार की असीम शांति
अश्रु कणों का सागर हो तुम
भावों की उज्जवल नदियाँ
जाति ,धर्म का पर्वत क्यों है ?
यहाँ आये तुम्हे जब हुई सदियाँ |
हीरे सी निष्ठुर हो तुम
कांच को भी काट देती हो
जिस पल में रिश्ता हो जोड़ती
उसी पल रिश्ता एक तोड़ देती हो
मैं,मेरा,मुझे, या हमें हमारा
स्व ,समूह , देश या संसार सारा
सब तुम पर ही आसीन है
फिर भी तू क्यों पराधीन है
उत्सव बना रहा है कोई
तुझे खुद में समाकर
उसे ही जला रहा है कोई
तेरे आवेश में आकर
तुझसे निर्मित तेरे ये रूप
धर्म,जाति , गोत्र ,देश, समाज
हो गये हैं क्यों इतने कुरूप
मानव हृदय में आने का
क्या तेरा यही काम था
इस सुन्दर विश्व को
क्या बनाना श्मशान था ?
संस्कार ,संस्कृति ,का उत्कर्ष जब तू है
विचार ,व्यवहार का निष्कर्ष जब तू है
तो मानव तुझे पाकर भी क्यों तुझे ही खोता है
ये तेरी है समस्या या मानव ही निकृष्ट ,खोटा है
तुझे खुद में समाकर खूब खुश होता है
तेरे लिए ही तुझे खोकर खूब रोता है
तुझे पाकर हम मानव निराकार होते हैं
पर तुझे हमेशा साकार कर ढोते हैं
मूर्त ,मंदिर ,मस्जिद, गिरिजा
सब में तुझको बाँट लिया
आधा आधा सबने समझा
हमने खुद को काट लिया | 15|10|2013
गोपाल
बर निक
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र
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