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संदेश

दूर देसक निवासी : मिथिलाक प्रवासी

पावैन सामान्यत: समाज औ परिवार मे एकता आ हर्षक प्रतीक मानल जाइत अछि, मुदा बहुतो गरीब प्रवासी लेल ई बोझ बनि जाइत अछि।   खास क' ओहि लोकक लेल जिनका बुनियादी जरूरत पूरा करय में कठिनाई होइत अछि।  जखन ककरो आर्थिक स्थिति कमजोर होइत अछि आ ओ अपन परिवार सँ दूर रहैत अछि, तखन ई उत्सव हुनका लेल एकटा अपूर्णता आ बेगानापनक अनुभव कराब' लगैत अछि। जिजीविषा  आर्थिक आ सामाजिक भार जखन गरीब प्रवासी मजदूर सभकें अपन रोजी-रोटी चलाब' लेल संघर्ष कर' पड़ैत अछि, तखन पावैनक अतिरिक्त खर्च ओकरा लेल भारी बोझ बनि जाइत अछि। परिवार लेल उपहार, खाना-पीना, यात्रा खर्च इ सब हुनका ऊपर अतिरिक्त आर्थिक दबाव बढ़ाब' अछि। "Festival in general are not just a celebration, but a test of human endurance for the marginalized" - अर्थात् "त्योहार सामान्यत: मात्र उत्सव नहि बल्कि वंचित लोकक लेल एकटा धैर्यक परीक्षा थीक" - इ बात पर शोधकर्ता जे. डब्ल्यू. ब्रोकर अपन पुस्तक "Social Impacts of Cultural Events" मे कहलनि। गरीब प्रवासी अपन गाम जाय लेल बहुतो संघर्ष करैत छथि, मुदा हुनका एहि संघर्ष के बा
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जवान - लोकतान्त्रिक अपील का बड़ा परदा

कला किसी भी दौर में अभिव्यक्ति के माध्यम खोज लेती है। भारतीय सिनेमा का भारतीय नागरिकों पर अत्यधिक प्रभाव है। ख़ासकर हिंदी सिनेमा का ऐसे दौर में जहाँ सत्ता ने तमाम तरह के दायरों में मीडिया को जकड़ा हुआ है, जहाँ लाभ और हानि का गणित व्यापक स्तर पर मनोभावों के ठेस लगने पर निर्भर कर दिया गया है। उस समय में यह फिल्म सत्ता से सवाल भी करती है। आपका मनोरंजन भी करती है।  पूरे देश में आम नागरिक की शिक्षा और स्वास्थ्य की जरूरतों को बड़े बड़े निगमों की चकाचौंध से भरी विज्ञापन की दुनिया में बिसरा दिया जाता है। हमारे आस पास से सरकार की भूमिका को धीरे धीरे मिटाया जा रहा है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में व्यवस्था के रिस्पांस सभी के प्रति बराबर होना चाहिए, पर अफ़सोस ऐसा है नहीं।  इतिहास के खोल में घुस चुका पूरा तंत्र वर्तमान को केवल खोखले गर्वोक्ति और अधूरी जानकारी से भरता है फिल्मों में बड़े बड़े सितारों ने भी उस जगाने की क्रिया से मुहं फेरा हुआ है।  एक लम्बे अन्तराल के बाद किसी बड़े सिनेमा के बड़े परदे से आपको आपके मतदान के महत्व और आपकी जिम्मेदारी के प्रति चेतना देने का प्रयास दिखेगा अब इसके लिए आपको एक बार यह फ

"धन्यवाद" प्रधानमंत्री कहना भ्रष्टाचार और बेईमानी है अपने ही देश से!

धन्यवाद प्रधानमंत्री,  सेवा में,  एक अदना भारतीय कर दाता नागरिक!   मैंने कल  एक माननीय सांसद का ट्वीट देखा जिसमें उन्होंने पेयजल की पूर्ती, निशुल्क: अनाज वितरण और कोविड टीके जैसे कामों के लिए कुछ जिला स्तरीय आंकड़ों के साथ उत्तर प्रदेश के किसी क्षेत्र विशेष के संदर्भ में   प्रधानमंत्री का धन्यवाद ज्ञापन उल्लेखित था ।   पिछले कुछ समय से मुख्य धारा की विवेकहीन पत्रकारिता और सत्ता की मलाई में से हिस्सा लेने वाले बुद्धिजीवियों ने एक ऐसा नैरेटिव सेट किया है जिसमें हर काम के लिए प्रधानमंत्री का धन्यवाद दिया जाना एक अघोषित नियम जैसा हो गया है ।   यह रिवाज भारतीय लोकतंत्र और प्रशासन दोनों की बेईज्ज़ती का आधार और आरम्भ है ।  भारत एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र है जिसका लोकतंत्र संस्थाओं पर आश्रित है ।  इन सस्थाओं में व्यक्ति और संसाधन लगे हुए हैं जो हमारे राष्ट्रीय प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ अंश हैं ।   इन संसधानों और व्यक्तियों का अनुक्रम सरपंच से लेकर राष्ट्रपति तक है । चुने हुए प्रतिनिधियों का हक़ तो है ही साथ ही कई अप्रत्यक्ष सत्ता संस्थान मसलन सामुदायिक प्रयास, व्यक्तिगत भलमनसाहत, अधिकारी स्तरीय तत्परता

इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय और इंदिरा गांधी खुला विश्विद्यालय

यह अनुमान है कि २०२१ तक भाषा रूपांतरण की वैश्विक मांग, इस क्षेत्र के पेशेवर सेवा क्षेत्र का बाजार 560 लाख रु के बराबर या उससे अधिक हो जाएगा।  वैश्विक बाजार में प्रवेश करने के लिए अनुवाद एक महत्वपूर्ण साधन है। वेबसाईट, अलग अलग तरह के अनुबंधों के दस्तावेज, बाजार से सम्बंधित सामग्री, भिन्न डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म को प्रयोग करने वाले व्यक्ति सभी के लिए अनुवाद ही एकमात्र विकल्प है कि वह नए क्षेत्रों से और नए बाजार से जुड़ें।     अनुवाद को केवल अनुवाद या दो भाषाओं का परिवर्तन समझेंगे तो यह बहुत कठिन लगेगा, लेकिन इसे अन्य विज्ञान की तरह विज्ञान समझेंगे तो यह सरल होगा। वैश्विक संदर्भ में योरोपीय संघ और भिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने इस विषय पर काम और शोध के क्षेत्र को विस्तारित किया है। भारतीय संदर्भ में अनुवाद परिषद और भाषा वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली आयोग इस क्षेत्र में कार्यरत्त हैं। कुछ बिंदु जिन पर कई तरह की भ्रांतियां हैं उसी के संदर्भ में मेरा यह लेख है आशा है इससे एक नया संवाद धरातल हिंदी भाषियों के बीच तैयार होगा।  अनुवादकों को मातृभाषी होना चाहिए  ब्रांड की वैश्विक सफलता के लिए  स्थानीय बाजा

भारत में राष्ट्र भाषा से सम्बंधित बहस! राष्ट्रभाषा की आशा हिंदी के बिंदी पर ही टिकी है!

यह लेख भारतीय संविधान के तहत राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर बहस और सामाजिक बदलाव लाने में इसके महत्व का विश्लेषण करने के लिए है। इसमें राजभाषाओं के विवाद और बहस से अर्थ  निकालते हुए हल निकालने के प्रयासों पर रोशनी डाली गई है ।   भारत में भाषाओं के मामले में समृद्ध रहा है , दूरदराज के क्षेत्रों द्वारा बोली जाने वाली प्रत्येक भाषा का संविधान के अनुच्छेद 29 और आठवीं अनुसूची से सम्मानित करने का प्रयास किया गया है। "इतिहास दर्शाता है कि, अनादि काल से, भारत एक बहुभाषी देश रहा है, प्रत्येक भाषा का एक निश्चित क्षेत्र है जिसमें संदर्भित भाषा का स्थान सर्वोच्च है , लेकिन इन क्षेत्रों में से कोई भी वास्तव में एकभाषी राज्य या रियासत का हिस्सा नहीं रहा है।"   मोटे तौर पर, भारतीय भाषाओं के चार प्रमुख समूह हैं : 1.                  हिन्द -आर्यन: संस्कृत, हिंदी, मराठी, मैथिलि, बंगाली, उड़िया, असमिया, कश्मीरी, नेपाली, कोंकणी, पंजाबी और उर्दू। 2.                  द्रविड़: तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम और टुल्लू। 3.                  मंगोलियन : मणिपुरी, त्रिपुरा, गारो और